Monday 17 November 2014

बदलाव और मानसिक प्रवृति (भारतीय सापेक्ष में)

वैसे तो इस विषय के बारे में लिखने के लिए मै बहुत छोटा हूँ पर ये मेरे अपने विचार है और ये बिलकुल गलत भी हो सकते हैं आप सब की आलोचनाओ का स्वागत है .
ऐसा क्यों है की हम सब कुछ अलग करने की ख्वाइश रखते हैं फिर भी किसी भी नए विचार का स्वागत करना हम में से बहुत से लोगों की प्रवृति में नहीं है.
बदलाव एक धीमी और सतत प्रक्रिया है और हमे इससे समझना और अपनाना चाहिए न किसी किसी भी नयी चीज से डरना और उसका विरोध करना चाहिए. हमे सतत अपने आप में ही विकासशील रहना चाहिए .किसी भी विचार को परखने के बाद अपनाने की आदत डालनी चाहिए. हमारा हर एक विचार किसी न किसी आस्था से जुड़ा है पर जरूरी नहीं है की वो आस्था सही हो . ये भी जरूरी नहीं है की जो बात बहुत सालों से कही जा रही हो वो सही हो . और वास्तव में सारी (वैज्ञानिक और धार्मिक) खोजें इसी बात पर निर्भर करती हैं की कब हम कुछ नया सोचेंगे. एक अबोध बालक एक दिन में कितने की प्रश्न पूछता हैं इस बर्ह्माण्ड के लिए हम अभी भी वो अबोध बालक ही हैं . बस वो जिज्ञासु प्रवृति कहीं खो गयी हैं. आज इंटरनेट के ज़माने में लोगों को अबोध देख कर बड़ा कष्ट होता हैं पर उस से जयादा तब होता हैं जब वो इंटरनेट पर कही हुई किसी भी बात को बिना तथ्य के मान लेते हैं.
ये सारी बातें जितनी विज्ञानं पर लागू होती  हैं उतनी ही हमारी समाज और सभ्यता पर भी. किसी बड़े लेखक ने लिखा हैं की "भाषा और धर्म का पहले विकार होता हैं फिर विकास होता हैं" . किसी संस्था या लोगों के संगठन को हमारी सभ्यता का ठेकेदार बनाना मेरे हिसाब से गलत हैं .
सदियों  रहा  है  दुश्मन  दौर-ऐ-ज़मान  हमारा .  इक़बाल
............................................................................. आशुतोष आज़ाद पाण्डेय 

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